श्रेय नहीं मिलता उसे क्यूं?


श्रेय नहीं मिलता उसे क्यूं,
विश्व सभ्यता की प्रगति में।
एक मजदूर ही था तपा,
उस दिवाग्नि में।
तपते लोहे की सलाखें भी,
अपना कठोरपन छोड़ देती थी,
धुक जाय करती थी तेज धूप में,
पर न झुका मजदूर का बाहुबल।
देख वह भी नर है,
एक तू नर है।
सिर्फ बौद्धिक बल का फर्क,
जो उसे हेय बना देता।
ठण्ड कड़ाके की,
हाड़-मांस भी जम जाता था।
पर क्या, डरा वह कभी,
मन में उमंग कुछ करने की थी।
पर कब सोचा उसने,
उसका श्रम उपेक्षित होगा।
उसके श्रम पर विश्वास कम,
मशीनों पर ज़्यादा होगा।
किसको दोष दें?
नियति को या महत्त्वाकांक्षी नर को।
नियति से ज़्यादा,
महत्त्वाकांक्षी नर दोषी है।

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