ओ, धर्म के ठेकेदारों कान खोल कर सुन लो,
अगर आमजन के बीच में पड़े तो। आपको अपनी सम्पत्ति की कसम, बोलने से पहले अपने धर्म के उस पीड़ित व्यक्ति को अपने पैसों से अमीर बनाना होगा। नहीं तो वैसे भी उनकी पीड़ा के लिए कोई (समाज सेवी संस्था) एनजीओ आगे आते हैं। अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो आपको कोई हक नहीं है सरकार को कौसने का, क्योंकि सरकार पूरे निष्पक्ष तरीके से अपना काम करने की कोशिश करती है।

यदि सरकार पर भरोसा नहीं तो आपको भी कोई हक नहीं अपने धर्म वालों से अधिक सम्पत्ति रखने का। क्या आप समान धर्म, समान मेहनताना और सबका सम्पत्ति पर समान हक की सोच विकसित कर सकते हैं।

और हां, सभी धर्म वालों के विश्वासों को विज्ञान ने कई संदर्भ में झूठा साबित किया है।

मेरी मानो, लड़ना छोड़ भाईचारे से ‘जियो और जिने दो’ का नारा अपना लो।

सच कहें हमारा तो धर्म से विश्वास उठ रहा है क्योंकि धर्मों के लोग आपस में लड़ते नजर आते हैं। जो हमारा धर्म नहीं कहता।

वे सब पता है क्यों लड़ते हैं?

भाई, पैसों के लिए।
अक्सर लोगों को सुना है, मैं बुद्धि से श्रेष्ठ तभी तो लेता हूं करोड़ की तनख्वाह।
हो, गया न आम आदमी उपेक्षित।
फिर चाहे धर्म कोई सा भी हो।

बिना पैसे धर्म की दुहाई देना पर भी आपको कोई दो वक्त की रोटी नहीं देगा।
हां, आप आज ही उन धर्म के पैरोकारों और उनके हितैषी जो बड़ी चिंता जताते हैं और करोड़ों रुपए अपना मेहनताना लेते हैं, उनके घर एक वर्ष के लिए निठल्ले मेहमान बन कर चले जाओ और धर्म की दुहाई देते हुए जीवन गुजारो, देखे आपको कितने दिन सहेंगे।

अजी, हमें पता आपका भी यही जबाव होगा।

भई हमारा तो यही मानना है कि हम अपने भाई की मदद नहीं कर सकते तो फिर उसके निजी जीवन में झांकने का हमको तो अधिकार नहीं है, क्योंकि हमने आर्थिक रूप से उसकी मदद नहीं की। जब हम मदद नहीं कर सकते है तो झूठी हमदर्दी जताने से क्या फायदा।

अब सुन लो एक-दूजे धर्म वालों, कोई छोटा, तो कोई बड़े धर्म वालों और प्रकृति की उपेक्षा कर एक—दूसरे पर आरोप—प्रत्यारोप लगाने वालों।
हम तो प्रकृति को ही मंदिर—मस्जिद और अन्य धर्मों की संस्था मानते हैं। जब राह में गुजरते हैं तो मंदिर के आगे भी शीश झुकाते हैं और मस्जिद—मजार, गुरुद्वारा या चर्च कोई भी धार्मिक संस्था के आगे से गुजरते हैं तो हृदय को पवित्र मानकर शीश झुका देते हैं।

हमने तो यही सीखा है विभिन्न धर्मों से एक—दूजे का सम्मान करो।
बहुत खुशी मिलती है और वह प्रकृति प्रफुल्लित हो उठती है।

आपको बता देते हैं, हमने एक आभास महसूस किया है, कि नर भी अब भगवान बनने की राह पर है,

कैसे?
अरे भी मानव ने ही तो इजाद किया है रोबोट यानि

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी।
इसे आपने भी देखा होगा, बहुत तेजी बढ़ने लगी है। हम मानव की जगह ले लेगी, सच में बहुत जल्द।
हमें तो अभी से डर लगने लगा है।
कहीं वह हमारी आने वाली पीढ़ियों का रोजगार न छीन लें।

भई पैसे वाला तो उस पर अधिक विश्वास करेगा, मानव पर क्यों?
क्या पता उसे और उसके परिवार को मारकर माल साफ कर ले जाएं तो?
सच में हम तो लड़ने में ही रह गए और विज्ञान ने अपनी सृष्टि का नायाब नमूना हमारा विकल्प ढूंढ़ लिया है।

अब, इन धर्म के ठेकेदारों ने ज्यादा देर की तो आने वाले दस-पंद्रह सालों में ये हमारी जगह लेने वाले हैं?

देखा, नहीं गौवंश के बैल को और गधे को?

माफ, करना मैं इन जीव को धर्म से नहीं तुलना कर रहा हूं? लेकिन हम मानव ने ही उनके श्रम को उपेक्षित किया है। जब हम उन्हें हमारे जीवन से केवल पैसों की खनक पाने के लिए इन्हें छोड़ सकते हैं तो फिर वो दुनिया के अरबपति मानव अपने से छोटे मानव को मक्खी की तरह चूस कर बेरोजगार कर देंगे।

जी, दरअसल बात यह है कि मैंने जब छोटा था यानि 90 के दशक में तब मेरे बचपन में बैल बेचारा मानव की हर जरूरत जो खेती से लेकर बाजार तक माल ले जाने तक, हमारे लिए उपयोगी पशु था।

अचानक अब बेचारा अपने अस्तित्व के लिए लड़ भी नहीं सका क्योंकि जो किसान पैसे वाला बन गए उन्होंने बैलों की बैगार करना उचित नहीं समझा।

बेचारे बैल वैसे ही धीमे काम करने की वजह से मानव जीवन से बेदखल हो गए।

अब मानव तेरी बारी है,

मैं तो कहता हूं पैसे वाले ऐसा जरूर कहते होंगे...

तकनीक तुझसे मेरा बैर नहीं,

और जी चुराने वाले नर तेरी खैर नहीं।

विज्ञान ने पैसों दुख निवारक है,

तभी तो कामचोर और हड़ताली का विकल्प ढूंढ़ा है,

क्योंकि का रचनाकर्ता विज्ञान है।।

तो सोच लो किस ओर जाना है, लड़ना है धर्म नाम पर या दुनिया में मानव को बचाना है।

लेखक- राकेश सिंह